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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

पांच

 

धर्मभृत्य ने आगंतुक की ओर देखा, "क्या बात है भीखन?"

सबका ध्यान भीखन की ओर चला गया। उसकी सांस धातुकर्मी की धोंकनी के समान चल रही थी और वह स्वेद से नहाया हुआ था।

"हांफते हुए कैसे आए?" राम बोले, "क्या दौड़ते आए हो?"

"हां भद्र राम!" भीखन बैठ गया, "थोड़ा दम लेकर बताता हूं। बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना लेकर आया हूं।" महत्त्वपूर्ण सूचना की चर्चा से सबने भीखन की ओर देखा; और भीखन एकदम चुप होकर बैठ गया। शरभंग के आश्रम से सुतीक्ष्ण के आश्रम तक, और उसके पश्चात् अपने गांव की सीमा तक भीखन उनके साथ आया था-राम सोच रहे थे-अवश्य ही भीखन धर्मभृ्त्य के निकट संपर्क में रहा है, यद्यपि उसका गांव यहां से बहुत निकट नहीं है...भीखन का श्वास कुछ स्थिर हुआ तो उसने दो-तीन लंबी सांसें लीं-बैठने की भंगिमा बदली और बोला, "यदि थोड़ा जल मिल जाता।"

एक ब्रह्मचारी द्वारा लाया गया जल पीकर, उसकी मुद्रा कुछ सहज संघर्ष की ओर

हुई तो बोला, "भद्र राम! बात यह है कि हमारा जो भू-स्वामी है न भूधर! उसके भवन में शस्त्र चमक रहे हैं। उसके घर में काम करने वाला एक अनुचर मेरा मित्र है। उसी ने मुझे यह सूचना दी है कि भूधर के अनेक मित्र मिलकर सैनिक एकत्र कर रहे हैं। कदाचित् उनके पास जनस्थान से राक्षसों की कोई टुकड़ी भी आ पहुंची है। उन्होंने मुनि धर्मभृत्य के मित्र मुनि आनन्द सागर के आश्रम पर आक्रमण कर उन्हें बंदी कर लिया है और अब वे आपके आश्रम पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं।"

"आनन्द सागर के आश्रम पर आक्रमण क्यों हुआ?"

"दे मुनि धर्मभृत्य के मित्र हैं।"

"किंतु भूधर की धर्मभृत्य से क्या शत्रुता?" लक्ष्मण बोले।

"शत्रुता क्यों नहीं है?" भीखन बोला, "धर्मभृत्य राम को बुलाकर लाए हैं, उन्होंने राम को आश्रम में ठहराया है। राम ने उग्राग्नि को खदेड़कर खान के श्रमिकों को मुक्त कर दिया है...। जो श्रमिक सिर उठाकर कभी आकाश नहीं देखता था, वह अब खान का स्वामी हो गया है...।"

"किंतु उग्राग्नि तो राक्षस नहीं था, उसके खदेडे़ जाने से भूधर को क्या कष्ट है?" शुभबुद्धि समझ नहीं पा रहा था।

"वैसे तो खान श्रमिक भी आर्य नहीं हैं।" भीखन बोला।

राम मुस्कराए, "भीखन ने बात स्पष्ट कर दी है। जाति कोई अर्थ नहीं रखती; मूल बात व्यवस्था की है। उग्राग्नि की व्यवस्था, राक्षसी व्यवस्था थी, जिसमें एक व्यक्ति अनेक मनुष्यों के श्रम की आय को झपटकर उन्हें भूखा मारना चाहता है, तथा स्वयं अपने लिए उस आय से विलास की सामग्री एकत्रित करना चाहता है। यदि कोई उसका विरोध करे तो हिंसा पर उतर आता है। शस्त्र-शक्ति द्वारा दमन से वह अपने शोषण का क्रम चलाए रखना चाहता है। हमने उग्राग्नि की व्यवस्था नष्ट कर दी है-उससे अन्य शोषकों को अपनी व्यवस्था के लिए संकट दिखाई पड़ने लगा है।" राम हंस पड़े, "है न अद्भुत बात। अग्निवंश के अत्याचार को बनाए रखने के लिए जनस्थान से राक्षसी सेना आई है।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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